कई बार मेरे सामने यह प्रश्न आया है की लोगो के जीवन मैं , उनके घर मैं या उनके काम करने की जगह मैं कोई ऐसा व्यक्ति है जिसको भूलने की बीमारी अर्थात डिमेन्षिया है, या फिर आल्झाइमर है. जिनके आस पास ऐसे लोग है, या ऐसा कोई भी व्यक्ति है, उनको बहुत ज़्यादा दुख होता है ऐसे व्यक्ति की हालत देख कर, और लगता है की बस इससे अच्छा तो भगवान उन्हे मृत्यु दे दे, तो शायद उनके कष्टों का अंत हो जाए. क्या ऐसा सोचना उचित है? क्या यह विचार एक डिमेन्षिया मरीज की मदद कर सकते है? अगर नही तो फिर कैसे हम उनकी कोई भी सहायता कर सकते है?

सबसे पहले मनोवैज्ञानिक रूप से हुमको यह समझना होगा की यह बीमारी होती ही क्यों है किसी को भी? तो उसका उत्तर यह है की - हम जिंदगी की लड़ाई मैं इतने उलझ जाते है की अपने उपर ही ध्यान देना छोड़ देते है, सारे दुख, दर्द, पीड़ा अपने अंदर ही दबाते जाते है. शुरू मैं यही करना उचित लगता है, परंतु कहीं ना कहीं एक दिन आता है जब हमने जो अंदर दबाया था वो सब नासूर के जैसा हो जाता है, वो अंतर्मन की पीड़ा इतना ज़्यादा दुख देने लग जाती है की हम उसमे पूरी तरह डूबने लग जाते है. जब कुछ पलों के लिए डूबते है तो बाकी सब कुछ भूल जाते है, यह थोड़ा थोड़ा भूलना धीरे धीरे हमारे अंदर घर कर जाता है, और अंदर की पीड़ा पूरी तरह से जब हावी हो जाती है, तब हम पूरी तरह से भूल जाते है की हम कौन है, कहाँ रहते है, आस पास के लोगो से हमारा क्या रिश्ता है? सब भूल जाते है. इस मानसिक हालत को डॉक्टर या मनोवैज्ञानिक डिमेन्षिया कहते है.


तो क्या करना चाहिए जिससे यह बीमारी ना हो?

जब आप जिंदगी के कठिन रास्तों पे चल रहे हो, या आप कठिन परिस्थियों का सामना कर रहे हों, तो अपने आप को वक़्त देना मत भूलें, अगर कभी रोने का दिल है तो खुल के रोयें, किसी दोस्त की मदद लें, किसी से भी अपने दिल की बात कह लें, और सबसे ज़्यादा आवश्यक है यह समझना की जिंदगी वो कठिनाइयाँ देकर आपको क्या सिखाने की कोशिश कर रही है? जिंदगी या भगवान आपको परेशान करने के लिए नही बैठा है, आपको कुछ सिखाने के लिए बैठा है. लेकिन आप सीखते नही, और बार बार वही समान परिस्ट्ीतियाँ आपका पीछा करती हुई दिखाई देती है.

तो अपने आप से भागना नही है, अपने दर्द को छुपाना नही है, अपना सामना करना है, अपने उस दर्द, उस पीड़ा का सामना करना है, उससे डर के भागना नही है. क्योंकि आज तो शायद आप भाग लेंगे, लेकिन जब वो दर्द, वो पीड़ा आपको पूरी तरह से एक दिन पकड़ लेगी, तब आप अपने आपको ही भूल जाएँगे.


वो गुरु या व्यक्ति जिसने परमात्मा को पा लिया उसकी नज़र मैं तो सारे लोग ही डिमेन्षिया के शिकार है. क्यों? क्योंकि सभी भूल चुके है की वो एक अजर, अमर, आत्मा है. वो भूल चुके है की वो दुनिया मैं सारे लोगो से मिलने और रिश्त्एदारियाँ निभाने नही आए थे, बल्कि आत्मा को परमात्मा से जोड़ने आए थे. जो एक रिश्ता याद रखना चाहिए था वही भूल गये. और जो सब याद है वो किसी काम का नही, वो दुख का कारण है. तो सभी भूले बिसरे है. किसी को भी सही मंज़िल का ज्ञान नही है.

तो अगर आपके आस-पास कोई ऐसा व्यक्ति है तो आप उसके लिए क्या कर सकते है?

सबसे पहले तो यह समझिए की ऐसे व्यक्ति को आपकी दया की ज़रूरत नही है, आपके प्यार की, स्नेह की ज़रूरत है, ऐसा स्नेह जैसा एक माँ अपने बच्चे से करती है. क्योंकि एक आत्मा-ज्ञानी के लिए आप भी ऐसी ही हालत मैं है, तो आप क्या चाहेंगे की आपके उपर वो दया करे, या आपको स्नेह दे, आपको प्यार से समझे, आपकी उस हालत मैं आपका साथ दे, बिना आपसे कोई अपेक्षा रखे? वही देने की कोशिश करें जो आप एक आत्मा-ज्ञानी, एक गुरु से मिलने की अपेक्षा रखते है. 


अगर कभी आपको लगे आज डिमेन्षिया का असर थोड़ा कम है, तो उस व्यक्ति को उसकी पहचान याद दिलाने मैं मदद करें, बिना यह अपेक्षा रखे हुए की उसको कुछ भी याद आ जाएगा. बिना किसी भी अपेक्षा के सेवा करें. यह कर्म आपके अपने जीवन को सुधारेगा. जो व्यक्ति आपको अपनी सेवा का अवसर दे रहा है, वो आपके उपर कृपा कर रहा है, क्योंकि वो आपको अपने अंदर के प्यार, स्नेह को जगाने का एक मौका दे रहा है, आप अपनी परेशानियों के बावजूद भी एक इंसान है, वो आपको उसी इंसानियत को निभाने का मौका दे रहा है. उसको खाली ना जाने दें. सहज, निष्पक्ष भाव से सेवा करें.

आख़िरकार आप एक गुरु से भी तो यही अपेक्षा रखते है ना, की वो बिना गुस्सा किए, सहज भाव से आपको यह याद दिलाने की कोशिश करे की आप एक आत्मा है जो अपना रिश्ता इस जन्म मैं परमात्मा से जोड़नेआई थी. संसार मैं खेलने या माया मैं उलझने नही आई थी. और एक दिन, एक बार मैं याद ना आए तो बहुत धैर्य के साथ बार बार आपको याद दिलाने की कोशिश करें.


यह समझना बहुत ज़रूरी है की मृत्यु से जीवन के दुखों का अंत नही होता. मृत्यु कोई समाधान नही है. आपके सारे दुख दर्द, कर्म आप साथ लेके जाएँगे, अभी भी एक भूली-भटकी आत्मा की तरह जी रहे है, और तब भी यही हाल रहेगा, या शायद इससे भी बुरा हाल होगा. तो डिमेन्षिया, भूलने की बीमारी, या जीवन की किसी भी बीमारी का समाधान मृत्यु नही है. आप अगर ऐसा सोच रहे है की उस डिमेन्षिया मरीज को मौत ही आ जानी चाहिए, जिससे उसको कष्ट नही होगा तो आप यह ग़लत सोच रहे है.

क्या एक गुरु, आत्मा-ज्ञानी आपके लिए यही सोचे, की ऐसे भूली-भटकी आत्मा की तरह जीने से अच्छा है आपको मृत्यु प्राप्त हो जाए? नही!!! हरगिज़ नही! मृत्यु होने से आपकी आत्मा नही जाग जाएगी, मृत्यु होने से आपको यह याद नही आ जाएगा की आपके जीवन का एक मात्र कर्म अपनी आत्मा को परमात्मा की ओर ले जाना था. जो भूल मैं जी रहा था, वो मर कर भी भुला ही रहेगा. शरीर मैं रह के याद आ जाता तभी उस आत्मा का कुछ कल्याण हो सकता था.

तो अब आपको यह नही भूलना है की मृत्यु कोई समाधान नही है, दुखों का अंत नही है. शरीर मैं रह के, आत्मा को परम्त्मा की ओर ले जाना ही एक मात्र समाधान है, वही एक मात्र रास्ता है दुखों के अंत का. परमात्मा की ओर जाने का मतलब पूजा, पाठ, करना नही है, परमात्मा की ओर जाने के लिए योग करना होता है, हट योग, क्रिया योग साधना करनी होती है. रोज के चार मन्त्र पढ़के, एक घंटे पूजा करके, और बाद मैं डिमेन्षिया के मरीज के लिए बुरा सोच के, या किसी के भी बारे मैं बुरा सोच के आप परमात्मा की तरफ नही जा रहे है. परमात्मा को पाने के लिए अपने अहम को त्याग देना होता है, योग साधना की सहायता से, या तो आपका अहम रहेगा, या आपके अंदर परमात्मा का वास होगा.

अंततः यह समझना बहुत ज़रूरी है की आपके घर मैं, या आपकी जिंदगी मैं कोई भी ऐसा व्यक्ति क्यों है, जो डिमेन्षिया का मरीज है, जो भूलने की बीमारी का शिकार है?

ऐसा व्यक्ति आपके जीवन मैं सिर्फ़ इसलिए है, जिससे की आपको याद आ जाए की आप भी भूली-भटकी आत्मा की तरह जीवन जी रहे है. जिससे आपको यह याद आ जाए की आपके अंदर परमात्मा का वास है, जिससे आपको याद आ जाए की आप सच मैं कौन है? उस डिमेन्षिया मरीज की मौजूदगी आपको यह एहसास दिलाने के लिए है, की आप भी तो भूल गये है की आप कौन है, आपको क्या करना चाहिए था, और क्या कर रहे है? आपको किस रास्ते पर जाना चाहिए था, और आप पूरा जीवन कहाँ कहाँ भटकने मैं गुज़ार रहे है.

डिमेन्षिया के मरीज को तो सिर्फ़ वो भूला है जो उसके शरीर से जुड़ा है, सारे रिश्ते-नाते आपके शरीर से जुड़े है, सारी पहचान आपके शरीर से जुड़ी है, तो उसको तो सिर्फ़ वही भूला है. आप तो अपनी ही आत्मा को भूल गये. शरीर तो यहीं रह जाएगा, उसकी सारी पहचान, रिश्ते, नाते सब यहीं रह जाएगा, तो भूल भी गये तो कोई बहुत बड़ी बात नही है, मृत्यु के वक़्त सब कुछ वैसे भी छूट जाना था, परंतु आत्मा तो आप खुद है, उसको भूल गये है तो कहाँ जाएँगे? तो क्या लेके जाएँगे?

डिमेन्षिया के मरीज की हालत इतनी बुरी नही है, जितनी आपकी. आपको शरीर से जुड़ा सब कुछ याद है, तब भी योग साधना की तरफ नही जा रहे है, तब भी अपनी आत्मा को ढूड़ने की कोशिश नही कर रहे है, पैर है, मगर चलना नही चाहते, यादाश्त और दिमाग़ ठीक है, फिर भी सही रास्ते पे चलना नही चाहते, तो ज़्यादा बुरी हालत किसकी है?

आपकी!

सोचिए, विचारिये, कि जिंदगी और आपके आस-पास के लोग, आपकी परिस्तिथिय आपको क्या दिखा रही है, और क्या सिखाने की कोशिश कर रही है. क्या है जो आप सामने देख कर भी सीख नही रहे है?

किसी को डॉक्टर ने सर्टिफिकेट दे दिया है की वो डिमेन्षिया या आल्झाइमर का मरीज है, आपको कौन से गुरु या भगवान से सर्टिफिकेट मिलना चाहिए?


सादर प्रणाम
~ आदिगुरु



1 comment:

  1. Awesome and very realistic write up

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Thanks!