आपके जीवन में आपको कई बार मुश्किल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, नौकरी में, रिश्तों में, नये या पुराने लोगों के साथ, पढ़ाई में । जीवन की कोई भी स्थिति हो, आपका मनस, अहम, बुद्धि और चित्त उसपर प्रतिक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रिया आपको सुखद अनुभव दे सकती है, या आपको परेशान, चिंतित, ओर दुखद अवस्था में ले जा सकती है। जब आपका माइंड (मनस, अहम, बुद्धि, चित्त) जीवन की परिस्थितियों में प्रतिक्रियावश गाँठे बना लेता है, तब आपकी प्राणमया-कोशा में प्राण-शक्ति ठीक से संचारित नहीं हो पाती है। और जब बहुत लंबे समय तक आप अपनी मनोदशा सुधार नहीं पाते, तो यह मनोदशा आपकी प्राण-शक्ति को भी कमजोर बनाती जाती है। अंततः यह मनोदशा आपके शरीर में बीमारियों के रूप में प्रकट हो जाती है, क्योंकि मनोदशा तो दिखाई नहीं देती, परंतु बीमारियाँ दिखाई देती हैं, महसूस होती हैं, बहुत ज़्यादा परेशान करती हैं, तो आप सरपट उनके इलाज में लग जाते हैं।
जो बीमारियाँ मनोदशा के लंबे समय तक खराब होने से होती हैं, उनको मनोदैहिक रोग या बीमारियाँ कहते हैं।
अगर आपकी मनोदशा खराब हो रही है, तो आपको उस पर ध्यान देना चाहिए, थोडा रुक कर सोचना चाहिए की यह मनोदशा अगर ज़्यादा दिन चलेगी तो आपको बीमारियों की तरफ ले जाएगी । ऐसा नहीं है की आप खराब मनोदशा में रहना चाहते हैं, कोई भी नहीं रहना चाहता चिंतित, दुखी हालत में, परंतु आपको मनोदशा को बदलना नहीं आता । आप सोचते हैं की अगर "परिस्थिति" बदल दी जाए तो आपकी मनोदशा स्वतः ठीक हो जाएगी । आपको लगता है की आपकी मनोदशा के खराब होने के ज़िम्मेदार दूसरे लोग हैं, आपके रिश्त्एदार, ससुराल वाले, माता-पिता, बच्चे, भाई-बेहेन, पड़ोसी, ऑफीस का बाबू या अधिकारी, या आपकी किस्मत, या फिर भगवान, खुदा ज़िम्मेदार है । कुछ भी हो आप ज़िम्मेदार नहीं हैं अपनी खराब मनोदशा के लिए ।
जब और पूरी दुनिया ज़िम्मेदार है, आप हैं ही नहीं, तो पूरी दुनिया को बदलना पड़ेगा आपकी मनोदशा ठीक करने के लिए, आपको क्यों बदलना है? सही बात है ना यह?
यदि कोई पूर्णतः दैहिक बीमारी होती जिसमें किसी बॅक्टीरिया, वाइरस, जानवर या मनुष्य ने आपके शरीर पे आघात किया होता तो उनको दोष दे सकते हैं आसानी से । परंतु मनोदैहिक बीमारी में तो दोषी सिर्फ़ एक ही चीज़ दिखाई देती है, और वो है "कठिन जीवन", या "कठिन परिस्थिति" । मतलब यह की आपको किसी और को दोष देना ही है। क्योंकि आप खुद को ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहते ।
पता नहीं पहले ही आपको किस किस ने ग़लत निर्णयों के लिए, सारे ग़लत कामों के लिए, आपके रवैया के लिए आपको पहले ही दोषी ठहरा दिया है, अब उपर से कोई आपको बताए की आप अपनी मनोदैहिक बीमारियों जैसे डाइयबिटीस / मधुमेह, हाइपरटेन्षन / उच्च रक्तचाप और अन्य रोगों के लिए भी ज़िम्मेदार हैं तो कैसे हजम होगा? कैसे चलेगा ना?
दूसरों को दोषी ठहराना तो आदत है आपकी, कोई पास में ना मिले तो किस्मत, कर्म, या भगवान को दोषी ठहरा सकते हैं. क्योंकि किस्मत, कर्म, या भगवान तो आएगा नहीं आपसे लड़ने कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमको दोषी ठहराने की? तो ऐसा करना सेफ, सुरक्षित है। है ना?
और कुछ ना मिले तो भूत-प्रेत, काला जादू, यन्त्र, तन्त्र, मन्त्र, पंडित, गुरु, काली-बिल्ली, कुत्ते, कौऊए, आपके सितारे, नक्षत्र, जन्म-कुंडली, कुण्डलिनी-शक्ति किसी को भी दोषी ठहरा सकते हैं ।
तो मनोदशा सुधारने में सबसे पहली मुसीबत क्या है? सबसे पहली मुश्किल क्या है? यह "किसी और को दोषी समझने की आदत" ।
अगर कोई आपको "गधा" कहे, तो आप गधे हो जाएँगे क्या? कोई आपका पैसा लेके भाग जाए, तो आज कयामत का आखरी दिन तो है नही की आप पैसा फिर से कमा नहीं पाएँगे । कोई आपसे रिश्ता तोड़ के चला जाए, तो आप आज ही तो मरने वाले नहीं हैं, और रिश्ते बना सकते हैं, या भविष्य में रिश्ता ठीक करने की कोशिश कर सकते हैं । कोई आपके घर में बीमार, पागलपन, या नशे का सेवन करने वाला है, या बहुत झगड़ालू है, गुस्से वाला है, तो आपके चिंतित या दुखी रहने से उसमे कोई भी सुधार तो नहीं लाया जा सकता । हर आत्मा अपने संस्कार लेके आई है, और वो जैसे भी जीवन जी रही है, वही उसको जीना है, वो बदलेगी तो अपनी अंतर-आत्मा की शक्ति से, अंतर-आत्मा में शक्ति होगी तो वो सही लोगों के साथ रहेगी, उनकी बात सुनेगी, नहीं तो वो ऐसे ही जीती जाएगी । आप यदि सहायता नहीं कर सकते तो दूर हट जाइए, अन्यथा खुद को चिंतित या परेशान करने से क्या होगा?
आपका चिंतित रहना, भविष्य के बारे में सोच के डरना, मन को दुखी रखना, मन में द्वेष, गुस्सा रखना, पुरानी बातों को याद करते रहना "सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी प्रतिक्रिया है". क्यों होती है यह प्रतिक्रिया हमारे अंदर?
हमारे अपने संस्कारों की वजह से. वो संस्कार जो हमने पिछले कितने जन्मों से एकत्रित किए हैं. यह संस्कार हैं -
- मोह
- आह्रीक्य - शर्म की कमी
- औचित्य की कमी
- औद्धतया - बेचैनी
- लोभ / राग
- दृष्टि / माया - सच को ना देख पाना
- घमंड / अभिमान, दंभ
- द्वेष
- ईर्ष्या
- कृपणता / कंजूसी
- खेद
- आलस
- तंद्रा
- शक / असमंजस
आपकी अच्छी या बुरी किसी भी प्रतिक्रिया की वजह यह संस्कार हैं । आप सुखी हैं या दुखी, चाहे कैसी भी स्तिथि में हैं, यदि आप उस स्तिथि और लोगों पर ध्यान ना देकर इस बात पर ध्यान दें, कि अगर मेरे अंदर यह प्रतिक्रिया उठ रही है, तो इनमें से "कौन सा" संस्कार अभी मेरे अंदर काम कर रहा है? यदि आपको किसी पर प्यार आ रहा है तो "मोह और राग" के संस्कार क्रियाशील हैं । यदि आपको किसी पर गुस्सा आ रहा है तो द्वेष, अभिमान, दृष्टि या कोई और संस्कार क्रियाशील है । यदि आप हर स्तिथि में दूसरों को दोषी ठहराने की जगह, खुद पर ध्यान देने लगें तो आप धीरे धीरे पहचानने लगेंगे की कौन सा संस्कार बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है? कौन सा संस्कार रूप धारण करने की कोशिश में है?
चलिए मान लिया कि आपने अपनी हर प्रितिक्रिया में अपना संस्कार पहचानना शुरू कर दिया, तब क्या होगा? धीरे धीरे हर संस्कार की पकड़ आपके उपर कम होती जाएगी, क्योंकि आप उन संस्कारों को पहचानने लगेंगे । आपके अंदर सजगता आ जाएगी और प्रतिक्रिया कम होगी । प्रतिक्रिया कम होने की वजह से मनोदशा खराब नहीं होगी बल्कि शांति रहेगी ।
अंततः नाद प्रतिबिंब साधना में आपको सिखाया जाता है की इन संस्कारों से मुक्ति कैसे पानी है? हमेशा के लिए इन संस्कारों को ख़तम कैसे करना है? क्या है जो इन संस्कारों से जुड़ा है? इनकी जड़ कैसे काटनी है?
यदि आप सिर्फ़ इन संस्कारों को हर पल, हर स्तिथि में पहचानना सीख जाएँगे तो भी आपकी मनोदशा में बहुत सुधार आ जाएगा, और आप मनोदैहिक रोगों से अपने आपको बचा पाएँगे।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
ज़य शिवाय!
आदिगुरु